हिंदी पशुपालन गाइड में पशुपालन से सम्बंधित विस्तृत जानकारी दी गई है। इस हिंदी पशुपालन गाइड में निम्नांकित बिन्दुओं पर बिस्तृत जानकारी दी गई है। इस लेख को दो भागो में प्रकाशित किया गया है ,यह लेख इस लेख का भाग एक है ।
- डेयरी पशुओं का आवास
- गाय व भेंसों के लिए सन्तुलित आहार
- नवजात बछडियों की देखभाल
- बछड़े/बछड़ियों को सींग रहित करने का समय व लाभ
- नवजात बछड़े/बछड़ियों की मुख्य बीमारियाँ व उनकी रोकथाम
- मादा दुधारू पशुपन के जननांगों की रचना तथा कार्य
- गाय व भेंसों में मद चक्र, मद काल, व मद के लक्षण
- पशु प्रजनन की क्रिया तथा इसमें न्यासर्गों (हार्मोन्स) की भूमिका
डेयरी पशुओं का आवास:
• पशु का आवास जितना अधिक स्वच्छ तथा आरामदायक होता है, पशु का स्वस्थ उतना ही अधिक अच्छा रहता है जिससे वह अपनी क्षमता के अनुसार उतना ही अधिक दुग्ध उत्पादन करने में सक्षम हो सकता है। अत: दुधारू पशु के लिए साफ सुथरी तथा हवादार पशुशाला का निर्माण आवश्यक है क्योंकि इसके आभाव से पशु दुर्बल हो जाता है और उसे अनेक प्रकार के रोग लग जाते है।
• एक आदर्श गौशाला बनाने के लिए निम्न लिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
1• स्थान का चयन:
गौशाला का स्थान समतल तथा बाकि जगह से कुछ ऊँचा हिना आवश्यक है ताकि वर्ष का पानी,मल-मूत्र तथा नालियों का पानी आदि आसानी से बाहर निकल सके ।यदि गहरे स्थान पर गौशाला बनायीजाती है तो इसके चरों ओर पानी तथा गंदगी एकत्रित होती रहती है जिससे गौशाला में बदबू रहती है।गौशाला के स्थान पर सूर्य के प्रकाश का होना भी आवश्यक है| धुप कम से कम तीन तरफ से लगनी चाहिए।गौशाला की लम्बाई उत्तर-दक्षिण दिशा में होने से पूर्व व पश्चिम से सूर्य की रोशनी खिड़कियों व दरवाजों के द्वारा गौशाला में प्रवेश करेगी।सर्दियों में ठंडी व बर्फीली हवाओं से बचाव का ध्यान रखना भी जरूरी है।
2• स्थान की पहुंच:
गौशाला का स्थान पशुपालक के घर के नज़दीक होना चाहिए ताकि वह किसी भी समय आवश्यकता पड़ने पर शीघ्र गौशाला पहुंच सके।व्यापारिक माप पर कार्य करने के लिए गौशाला का सड़क के नज़दीक होना आवश्यक है ताकि दूध ले जाने, दाना, चारा व अन्य सामान लेन-लेजाने में आसानी हो तथा खर्चा भी कम हो।
3• बिजली,पानी की सुविधा:
गौशाला के स्थान पर बिजली व पानी की उपलब्धता का भी ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि डेयरी के कार्य के लिए पानी की पर्याप्त मात्रा में जरूर होती है। ईसी प्रकार वर्तमान समय में गौशाला के लिए बिजली का होना भी आवश्यक है क्योंकि रात को रोशनी के लिए तथा गर्मियों में पंखों के लिए इसकी जरूरत होती है।
4• चारे,श्रम तथा विपणन की सुविधा:
गौशाला के स्थान का चयन करते समय चारे की उपलब्धता का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है क्योंकि चारे के बिना दुधारू पशुओं का पालना एक असम्भव कार्य है।हरे चारे के उत्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में सिंचित कृषि योग्य भूमि का होना भी आवश्यक है।चारे की उपलब्धता के अनुरूप ही दुधारू पशुओं की संख्या रखी जानी चाहिए।पशुओं के कार्य के लिए श्रमिक की उपलब्धता भी उस स्थान पर होनी चाहिए क्योंकि बिना श्रमिक के पड़े पैमाने पर डेयरी का कार्य करना अत्यन्त कठिन होता है।डेयरी के उत्पाद जैसे दूध,पनीर,खोया आदि के विपणन की सुविधा भी पास में होना आवश्यक है अत: स्थान का चयन करते समय डेयरी के उत्पाद के विपणन सुविधा को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।
5• स्थान का वातावरण:
पशुशाला एक साफ-सुथरे वातावरण में बनानी चाहिए।प्रदूषित वातावरण पशुओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है जिससे दुग्ध उत्पादन में कमी हो सकती है।पशुशाला के आसपास जंगली जानवरों का प्रकोप बहुत ही कम अथवा बिल्कुल ही नहीं होना चाहिए ताकि इनसे दुधारू पशुओं को खतरा न हो।
पशुओं के आवास बनाने की विधि:
दुधारू पशुओं का आवास सामान्यत: दो प्रकार का होता है:(क) बंद आवास तथा (ख) खुला आवास
(क) बंद आवास:
इस विधि में पशु को बांध कर रखा जाता है तथा उसे उसी स्थान पर दाना-चारा दिया जाता है। पशु का दूध भी उसी स्थान पर निकाला जाता है।इसमें पशु को यदि चरागाह की सुविधा हो तो केवल चराने के लिए ही कुछ समय के लिए खोला जाता है अन्यथा वह एक ही स्थान पर बना रहता है।
इस प्रकार के आवास में कम स्थान की आवश्यकता है, पशुओं को अलग-अलग खिलाना, पिलाना संभव है, पशु की बिमारी का आसानी से पता लग जाता है तथा पशु आपस में लदी नहीं कर सकते। इस प्रकार के आवास में इन लाभों के साथ-साथ इस विधि में कुछ कमियां भी है जैसे कि आवास निर्माण अधिक खर्चीला होता है, स्थान बढाए बगैर पशुओं की संख्या बढाना मुश्किल होता है, पशुओं को पूरी आज़ादी नहीं मिल पाती तथा मद में आए पशु का पता लगाना थोडा मुश्किल होता है।
(ख) खुला आवास:
इस विधि में पशुओं को एक घीरी हुई चार दीवारों के अन्दर खुला छोड़ दिया जाता है तथा उनके खाने व पीने की व्यवथा उसी में की जाती है।इस आवास को बनाने का खर्च अपेक्षकृत कम होता है। इसमें श्रम की बचत होती है, पशुओं को ज्यादा आराम मिलता है तथा मद में आए पशु का पता आसानी से लगाया जा सकता है।इस विधि की प्रमुख कमियों में: इसमें अधिक स्थान की आवश्यकता पडती है, पशुओं को अलग-अलग खिलाना संभव नहीं है तथा मद में आए पशु दूसरे पशुओं को तंग करते है।
(ग) अर्ध खुला आवास:
अर्ध खुला आवास बंद तथा पूर्ण आवासों की कमियों को दूर करता है। अत: आवास की यह विधि पशु पालकों के लिए अधिक उपयोगी है। इसमें पशु को खिलाते, दूध निकालते अथवा इलाज करते समय बाँधा जाता है, बाकी समय में उसे खुला रखा जाता है। इस आवास में हर पशु को 12-14 वर्ग मी. जगह की आवश्यकता होती है जिसमें से 4.25 वर्ग मी.(3.5 1.2 मी.) ढका हुआ तथा 8.6 व.मी.खुला हुआ रखा जाता है।व्यस्क पशु के लिए चारे की खुरली (नांद) 75 सेमी. छड़ी तथा 40सेमी.गहरी रखी जाती है जिसकी अगली तथा पिछली दीवारें क्रमश:75 व 130सेमी.होती है।खड़े होने से गटर(नाली) की तरफ 2.5-4.0सेमी.होना चाहिए। खड़े होने का फर्श सीमेंट अथवा ईंटों का बनाना चाहिए।गटर 30-40सेमी. चौड़ा तथा 5-7सेमी.गहरा तथा इसके किनारे गोल रखने चाहिए। इसमें हर 1.2सेमी. के लिए 2.5सेमी. ढलान रखना चाहिए। बाहरी दीवारें1.5 मी. ऊँची रखी जानी चाहिए| इस विधि में बछड़े-बछड़ियों तथा ब्याने वाले पशु के लिए अलग से ढके हुए स्थान में रखने की व्यवस्था की जाती है। प्रबंधक के बैठने तथा दाने चारे को रखने के लिए भी ढके हुए भाग में स्थान रखा जाता है।
• गर्मियों के लिए शैड के चरों तरफ छायादार पेड़ लगाने चाहिए तथा सर्दियों तथा बरसात में पशुओं को ढके हुए भाग में रखना चाहिए।सर्दियों में ठंडी हवा से बचने के लिए बोरे अथवा पोलीथीन के पर्दे लगाए जा सकते हैं।
गाय व भैंसों के लिए सन्तुलित आहार:
• वैज्ञानिक दृष्टि से दुधारू पशुओं के शरीर के भार के अनुसार उसकी आवश्यकताओं जसे जीवन निर्वाह, विकास तथा उत्पादन आदि के लिए भोजन के विभिन्न तत्व जैसे प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट्स, वसा, खनिज,विटामिन तथा पानी की आवश्यकता होती है।पशु को 24 घण्टों में खिलाया जाने वाला आहार (दाना व चारा) जिसमें उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू भोज्य तत्व मौजूद हों, पशु आहार कहते है। जिस आहार में पशु के सभी आवश्यक पोषक तत्व उचित अपुपात तथा मात्रा में उपलब्ध हों, उसे संतुलित आहार कहते हैं।
• पशुओं में आहार की मात्रा उसकी उत्पादकता तथा प्रजनन की अवस्था पर निर्भर करती है।पशु को कुल आहार का 2/3 भाग मोटे चारे से तथा 1/3 भग दाने के मिश्रण द्वारा मिलाना चाहिए।मोटे चारे में दलहनी तथा गैर दलहनी चारे का मिश्रण दिया जा सकता है। दलहनी चारे की मात्रा आहार में बढने से काफी हद तक दाने की मात्रा को कम किया जा सकता है।
• वैसे तो पशु के आहार की मात्रा का निर्धारण उसके शरीर की आवश्यकता व कार्य के अनुरूप तथा उपलब्ध भोज्य पदार्थों में पाए जाने वाले पोषक तत्वों के आधार पर गणना करके किया जाता है लेकिन पशुपालकों को गणना कार्य की कठिनाई से बचाने के लिए थम्ब रुल को अपनाना अधिक सुविधा जंक है| इसके अनुसार हम मोटे तौर पर व्यस्क दुधारू पशु के आहार को तीन वर्गों में बांट सकते हैं ।
1.जीवन निर्वाह के लिए आहार 2.उत्पादन के लिए आहार तथा 3.गर्भवस्था के लिए आहार
1.पशुओं के जीवन निर्वाह के लिए आहार:-
यह आहार की वह मात्रा है जिसे पशु को अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए दिया जाता है।इसे पशु अपने शरीर के तापमान को उचिर सीमा में बनाए रखने, शरीर की आवश्यक क्रियायें जैसे पाचन क्रिया ,रक्त परिवाहन,श्वसन, उत्सर्जन, चयापचय आदि के लिए काम में लाता है।इससे उसके शरीर का बजन भी एक सीमा में स्थिर बना रहता है।चाहे पशु उत्पादन में हो या न हो इस आहार को उसे देना ही पड़ता है इसके आभाव में पशु कमज़ोर होने लगता है जिसका असर उसकी उत्पादकता तथा प्रजनन क्षमता पर पड़ता है।इस में देसी गाय (ज़ेबू) के लिए तूड़ी अथवा सूखे घास की मात्रा 4 किलो तथा संकर गाय, शुद्ध नस्ल के लिए यह मात्रा 4 से 6 किलो तक होती है।इसके साथ पशु को दाने का मिश्रण भी दिया जाता है जिसकी मात्रा स्थानीय देसी गाय (ज़ेबू) के लिए 1 से 1.25 किलो तथा संकर गाय, शुद्ध नस्क की देशी गाय या भैंस के लिए इसकी मात्रा 2.0 किलो रखी जाती है।
• इस विधि द्वारा पशु को खिलने के लिए दाने का मिश्रण उचित अवयवों को ठीक अनुपात में मिलाकर बना होना आवश्यक है।इसके लिए हम निम्नलिखित घटकों को दिए हुए अनुपात में मिलाकर सन्तोषजनक पशु दाना बना सकते हैं।
खलियां
(मूंगफली,सरसों ,तिल,बनौला, आलसी आदि की खलें) |
25-35 प्रतिशत |
मोटे अनाज
(गेहूं, जौ, मक्की, जार आदि) |
25-35 प्रतिशत |
अनाज के बाईप्रोडक्ट्स
(चोकर,चून्नी,चावल की फक आदि ) |
10-30 प्रतिशत |
आयोडीन युक्त नमक | 2 प्रतिशत |
२ किलो प्रति 100 किलो
२ किलो प्रति 100 किलो |
2.पशुओं के उत्पादन के लिए आहार:-
उत्पादन आहार पशु की वह मात्रा है जिसे कि पशु को जीवन निर्वाह के लिए दिए जाने वाले आहार के अतिरिक्त उसके दूध उत्पादन के लिए दिया जाता है।इसमें स्थानीय गाय (ज़ेबू) के लिए प्रति 2.5 किलो दूध के उत्पादन के लिए जीवन निर्वाह आहार के अतिरिक्त 1 किलो दाना देना चाहिए जबकि संकर/देशी दुधारू गायों/भैंसों के लिए यह मात्रा प्रति 2 कोलो दूध के लिए दी जाती है। यदि हर चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है तो हर 10 किलो अच्छे किस्म के हरे चारे को देकर 1 किलो दाना कम किया जा सकता है।इससे पशु आहार की कीमत कुछ कम हो जाएगी और उत्पादन भी ठीक बना रहेगा।पशु को दुग्ध उत्पादन तथ आजीवन निर्वाह के लिए साफ पानी दिन में कम से कम तीन बार जरूर पिलाना चाहिए।
3.पशुओं के गर्भवस्था के लिए आहार:-
पशु की गर्भवस्था में उसे 5 वें महीने से अतिरिक्त आहार दिया जाता है क्योंकि इस अवधि के बाद गर्भ में पल रहे बच्चे की वृद्धि बहुत तेज़ी के साथ होने लगती है| अत: गर्भ में पल रहे बच्चे की उचित वृद्धि व विकास के लिए तथा गाय/भैंस के अगले ब्यांत में सही दुग्ध उत्पादन के लिए इस आहार का देना नितान्त आवश्यक है।इसमें स्थानीय गायों (ज़ेबू कैटल) के लिए 1.25 किलो तथा संकर नस्ल की गायों व भैंसों के लिए 1.75 किलो अतिरिक्त दाना दिया जाना चाहिए।अधिक दूध देने वाले पशुओं को गर्भवस्था में 8वें माह से अथवा ब्याने के 6 सप्ताह पहले उनकी दुग्ध ग्रंथियों के पूर्ण विकास के लिए की इच्छानुसार दाने की मात्रा बढा देनी चाहिए। इस के लिए ज़ेबू नस्ल के पशुओं में 3 किलो तथा संकर गायों व भैंसों में 4-5 किलो दाने की मात्रा पशु की निर्वाह आवश्यकता के अतिरिक्त दिया जाना चाहिए।इससे पशु अगले ब्यांत में अपनी क्षमता के अनुसार अधिकतम दुग्धोत्पादन कर सकते हैं।
नवजात बछडियों की देखभाल:
पशुपालकों को डेयरी फार्मिंग से पूरा लाभ उठाने के लिए नवजात बछडियों की उचित देखभाल व पालन-पोषण करके उनकी मृत्यु दर घटाना आवश्यक है। नवजात बछडियों को स्वस्थ्य रखने तथा उनकी मृत्यु डर कम करने के लिए हमें निम्नलिखित तरीके अपनाने चाहिए:
1.गाय अथवा भैंस के ब्याने के तुरन्त बाद बच्चे के नाक व मुंह से श्लैष्मा व झिल्ली को साफ कर देना चाहिए जिससे बच्चे के शरीर में रक्त का संचार सुचारू रूप से हो सके।
2.बच्चे की नाभि को ऊपर से 1/2 इंच छोडकर किसी साफ कैंची से काट देना चाहिए तथा उस पर टिंचर आयोडीन लगानी चाहिए।
3.जन्म के 2 घंटे के अन्दर बच्चे को माँ का पहला दूध (खीस) अवश्य पिलाना चाहिए।खीस एक प्रकार का गाढ़ा दूध होता है जिसमें साधारण दूध की अपेक्षा विटामिन्स, खनिज तथा प्रोटीन्स की मात्रा अधिक होती है।इसमें रोग निरोधक पदार्थ जिन्हें एन्टीवाडीज कहते हैं भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।एन्टीवाडीज नवजात बच्चे को रोग ग्रस्त होने से बचाती है।खीस में दस्तावर गुण भी होते हैं जिससे नवजात बच्चे की आंतों में जन्म से पहले का जमा मल (म्युकोनियम) बाहर निकल जाता है तथा उसका पेट साफ हो जाता है।खीस को बच्चे के पैदा होने के 4-5 दिन तक नियमित अंतराल पर अपने शरीर के बजन के दसवें भाग के बराबर पिलाना चाहिए।अधिक मात्र में खीस पिलाने से बच्चे को दस्त लग सकते हैं।
4.यदि किसी कारणवश (जैसे माँ की अकस्मात् मृत्यु अथवा माँ का अचानक बीमार पड़ जाना आदि) खीस उपलब्ध न हो तो किसी और पशु की खीस को प्रयोग किया जा सकता है।और यदि खीस किसी और पशु का भी यह उपलब्ध न हो तो नवजात बच्चे को निम्नलिखित मिश्रण दिन में 3-4 बार दिया जा सकता है।300 मि.ली. पानी को उबाल कर ठंडा करके उसमें एक अंडा फेंट लें।इसमें 600 मि.ली.साधारण दूध व आधा चमच अंडी का तेल मिलाएं।फिर इस मिश्रण में एक चम्मच फिश लिवर ओयल तथा 80मि.ग्रा.औरियोमायसीन पाउडर मिलाएं।इस मिश्रण को देने से बच्चे को कुछ लाभ हो सकता है लेकिन फिर भी यह प्राकृतिक खीस की तुलना नहीं कर सकता क्योंकि प्राकृतिक खीस में पाई जाने वाली एंटीबाड़ीज नवजात बच्चे को रोग से लड़ने की क्षमता प्रदान करती है।खीस पीने के दो घंटे के अन्दर बच्चा म्युकोनियम (पहला मल) निकाल देता है लेकिन ऐसा न होने पर बच्चे को एक चम्मच सोडियम बाईकार्बोनेट को एक लीटर गुनगुने पानी में घोल कर एनीमा दिया जा सकता है।
5.कई बार नवजात बच्चे में जन्म से ही मल द्वार नहीं होता इसे एंट्रेसिया एनाई कहते हैं।यह एक जन्म जात बिमारी है तथा इसके कारण बच्चा मल विसर्जन नहीं कर सकता और वह बाद में मृत्यु का शिकार हो जाता हैं। इस बीमारी को एक छोटी सी शल्य क्रिया द्वारा ठीक किया जा सकता है।मल द्वार के स्थान पर एक +के आकार का चीर दिया जाता है तथा शल्य क्रिया द्वारा मल द्वार म्ब्नाक्र उसको मलाशय (रेक्टम) से जोड़ दिया जात है जिससे बच्चा मल विसर्जन करने लगता है| यह कार्य पशुपालक को स्वयं न करके नजदीकी पशु चिकित्सालय में करना चाहिए क्योंकि कई बार इसमें जटिलतायें पैदा हो जाती है।
6.कभी-कभी बच्छियों में जन्म से ही चार थनों के अलावा अतिरिक्त संख्या में थन पाए जाते है।अतिरिक्त थनों को जन्म के कुछ दिन बाद जीवाणु रहित की हुई कैंची से काट कर निकाल देना चाहिए।इस क्रिया में सामान्यत: खून नहीं निकलता। अतिरिक्त थनों को न काटने से बच्छी के गाय बनने पर उससे दूध निकालते समय कठिनाई होती है।
7.यदि पशु पालक बच्चे को माँ से अलग रखकर पालने की पद्यति को अपनाना चाहता है तो उसे बच्चे को शुरू से ही बर्तन में दूध पीना सिखाना चाहिए तथा उसे मन से जन्म से ही अलग कर देना चाहिए।इस पद्यति में बहुत सफाई तथा सावधानियों की आवश्यकता होती है जिनके बिना बच्चों में अनेक बिमारियों के होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
8.नवजात बच्चों को बड़े पशुओं से अलग एक बड़े में रखना चाहिए ताकि उन्हें चोट लगने का खतरा न रहे।इसके अतिरिक्त उनका सर्दी व गर्मीं से भी पूरा बचाव रखना आवश्यक है।
बछड़ों/बच्छियों को सींग रहित करने का सही समय व लाभ:
पशुओं में सींग अपनी रक्षा तथा बचाव के लिए होते है जिससे वे दूसरे पशुओं पर हमला करते हैं पशुओं के सींगों से पशुओं के नस्लों की पहचान भी होती है लेकिन सींगों वाले पशुओं को नियंत्रित करना तथा उनके साथ काम करना मुश्किल होता है क्योंकि इसने अन्य पशुओं तथा उनके साथ काम करने वाले मनुष्यों को चोट लगने का सदैव भय रहता है।सींग टूट जाने पर पशु को बहुत तकलीफ होती है तथा सींग वाले पशुओं को होर्न कैंसर होने का भी खतरा रहता है। अत: आधुनिक व वैज्ञानिक तरीके से डेयरी फार्मिंग करने के लिए पशुओं को बचपन से ही सींग रहित कर दिया जाता है।सींग रहित पशुओं के साथ गौशाला में काम करना आसान होता है तथा पशु गौशाला में कम स्थान घेरता है।सींग रहित पशु देखने में भी सुंदर लगते हैं तथा उनकी बाज़ार में कीमत भी अपेक्षाकृत अधिक होती है।
बछड़ों/बच्छियों को सींग रहित करने के लिए जन्म के कुछ दिन बाद उनके सींगों की जड़ को दवा अथवा शल्य क्रिया द्वारा नष्ट कर दिया जाता है।यह कार्य गाय के बच्चे की 10-15 दिन की आयु तथा भैंस के बच्चे की 7-10 दिन की आयु में अवश्य करा लेना चाहिए क्योंकि तब तक सींग कई जड़ कपाल की हड्डी (स्कल) से अलग होती है जिसे आसानी से निकाला जा सकता है।इससे अधिक आयु के बच्चे को सींग रहित करने से उसे तकलीफ होती है।पहले बछड़ों/बच्छियों को सींग रहित करने के लिए उनके सींग के निकलने के स्थान पर कास्टिक पोटाश का प्रयोग किया जाता था जिससे सींग की जड़ नष्ट हो जाती थी।लेकिन अब यह कार्य एक विशेष बिजली का यंत्र जिसे इलेक्ट्रिक डिहार्नर कहते हैं के साथ एक छोटी सी शल्य क्रिया द्वारा किया जाता है।शल्य क्रिया से हले सींगों की जड़ों वाले स्थान को इंजेकशन देकर संज्ञाहीन (सुन्न) हर किया जाता है जिससे शल्य क्रिया के दौरान पशु को तकलीफ महसूस नहीं होती।सींग रहित करने के स्थान पर चमड़ी में थोड़े से घाव हो जाते हैं जिन पर एंटीसेप्टिक क्रीम लगाने से वे कुछ दिनों में ठीक हो जाते हैं।बड़े पशुओं को सींग रहित करना कुछ मुश्किल होता है क्योंकि इसमें बड़ी शल्य क्रिया करने की आवश्यकता होती है तथा घाव भी बड़ा होता है जिसके ठीक होने में कुछ अधिक समय लगता है।
नवजात बच्छे/बच्छियों की मुख्य बीमारियाँ व उनकी रोकथाम:
नवजात बच्छे/बच्छियों का बीमारियों से बचाव रखना बहुत आवश्यक है क्योंकि छोटी उम्र के बच्चों में कई बिमारियाँ उनकी मृत्यु का कारण बनकर पशुपालक को आर्थिक हानी पहुंचती है।नवजात बच्छे/बच्छियों की प्रमुख बीमारियां निम्नलिखित है:-
1.काफ अतिसार(काफ डायरिया व्हायट स्कौर/कोमन स्कौर):
छोटे बछड़ों में दस्त उनकी मृत्यु में एक प्रमुख हार्न है। बछड़ों में दस्त लगने के अनेक कारण हो सकते हैं।जिनमें अधिक मात्रा में दूध पी जाना, पेट में संक्रमण होना, पेट में कीड़े होना आदि शामिल हैं।बछड़ोंको दूध उचित मात्रा में पिलाना चाहिए।यह मात्रा न्छे के वज़न का 1/10 भाग पर्याप्त होती है।अधिक दूध पिलाने से बच्चा उसे हज़म नहीं कर पात और वह सफेत अतिसार का शिकार हो जाता है।कई बार बछड़ों खूंटे से स्वयं खुलकर माँ का दूध अधिक पी जाता है और उसे दस्त लग जताए हैं|ऐसी अवस्था में बछड़ोंको एंटीबायोटिक्स अथवा कई अन्य एन्तिबैक्टीरीयल दवा देने कई आवश्यकता पड़ती है जिन्हें मुंह अथवा इंजेक्शन के दार दिया जा सकता है।बछड़ों के शरीर में पानी की कमी हो जाने पर ओ.आर.एस. का घोल अथवा इंजेकशन द्वारा डेक्ट्रोज-सेलायं दिया जाता है।पेट के संक्रमण के उपचार के लिए गोबर के नमूने के परीक्षण करके उचित दवा का प्रयोग किया जा सकता है।कई बछड़ों में कोक्सीडियोसिस से खुनी दस्त अथवा पेचिस लह जाते हैं जिसका उपचार Ciprocolen (सिप्रोकोलेन) दवा का प्रयोग किया जाता है ।
2.बछड़ों के पेट में कीड़े (जूने) हो जाना:
प्राय: गाय अथवा भैंस के बच्चों के पेट में कीड़े हो जाते हैं जिससे वे काफी क्म्जोत हो जाते है।नवजात बच्चों में ये कीड़े मन के पेट से ही आ जाते हैं।इसमें बच्चों को गस्त अथवा कब्ज लग जाते हैं| पेट के कीड़ों के उपचार के लिए पिपराजीन दवा का प्रयोग सर्वोतम हैं। गर्भवस्था कई अंतिम अवधि में गाय या भैंस को पेट में कीड़े मारने कई दवा देने से बच्चों मेंजन्म के समय पेट में कीड़े नहीं होते।बच्चों को लगभग 6 माह की आयु होने तक हर डेढ़ -दो महीनों के बाद नियमित रूप से पेट के कीड़े मारने कई दवा (पिपरिजिन लिक्किड अथवा गोली) अवश्य देनी चाहिए।बछड़ों को Growlive Forte -ग्रोलिव फोर्ट नियमित रूप से दें ,यह कीड़ों से बचाव भी करेगा और उनकी पाचन शक्ति और वजन भी बढ़ायेगा।
3.बछड़ों के नाभि का सडना (नेवल इल):
कई बार नवजात नवजात बच्छे/बच्छियों की नाभि में संक्रमण हो जाता है जिससे उसकी नाभि सूज जाती है तथा उसमें पिक पड़ जात है। कभी कभी तो मक्खियों के बैठने से उसमें कीड़े(मेगिट्स)भी हो जाते है।इस बिमारी के होने पर नजदीकी पशुचिकित्सालय से इसका ठीक प्रकार से ईलाज कराना चाहिए अन्यथा कई और जटिलतायें उत्पन्न होकर बचे कई म्रत्यु होने का खतरा रहता है। बच्चे के पैदा होने के बाद, उसकी नाभि को शी स्थान से काट कर उसकी नियमित रूप से एंटीसेप्टिक ड्रेसिंग करने तथा इसे साफ स्थान पर रखने से इस बीमारी को रोका जा सकता है।
4.बछड़ों को निमोनियां:
बछड़ों का यदि खासतौर पर सर्दियों में पूरा ध्यान ना रखा जाए तो उसको निमोनिया रोग होने कई संभावना हो जाती है।इस बीमारी में बछड़ों को ज्वर के साथ खांसी तथा सांस लेने में तकलीफ हो जाती है तथा वह दूध पीना बंद कर देता है।यदि समय पर इसका इलाज ना करवाया जाय तो इससे बच्चे की मृत्यु भी हो जाती है। एंटीबायोटिक अथवा अन्य जीवाणु निरोधक दवाईयों के उचित प्रयोग से इस बीमारी को ठीक किया जा सकता है।जड़ों तथा बरसात के मौसम में बच्चों की उचित देख-भाल करके उन्हें इस बीमारी से बचाया जा सकता है।
5.बछड़े/बछडियों का टायफड (साल्मोनेल्लोसिस):
यह भयंकर तथा छुतदार रोग एक बैक्टीरिया द्वरा फैलता है।इसमें पशु को तेज़ बुखार तथा खुनी दस्त लग जाते हैं। इलाज के आभाव में मृत्यु डर काफी अधिक हो सकती है।इस बीमारी में एंटीबायोटिक्स अथवा एन्तिबैक्टीरीतल दवायें प्रयोक की जीती है।प्रभावित पशु को अन्य स्वस्थ पशुओं से अलग रखकर उसका उपचार करना चाहिए।पशुशाला की यथोचित सफाई रख कर तथा बछड़े/बछडियों की उचित देख भाल द्वारा इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।
6.पशुओं में मुंह व खुर की बीमारी (फुट एंड माउथ डिजीज):
बड़े उम्र के पशुओं में तेज़ बुखार होने के साथ-साथ मुंह व खुर में छाले व घाव होने के लक्षण पाए जाते हैं लेकिन बच्छे/बच्छियों में मुंह व खुर के लक्षण बहुत कम देखे जाते हैं।बच्चों में यह रोग उनके हृदय पर असर करता है जिससे थोड़े ही समय में उन्किम्रित्यु हो जाती है।हालांकि वायरस (विषाणु) से होने वाली इस बीमारी का कोई ईलाज नहीं है लेकिन बीमारी हो जाने पर पशु चिकित्सक की सलाह से बीमारी पशु को द्वितीय जीवाणु संक्रमण से अवश्य बचाया जा सकता है।यदि मुंह व खुर में घाव हो ती उन्हें पोटैशियम परमैगनेटके 0.1 प्रतिशत घोल से साफ करके मुंह में बोरो-ग्लिसरीन तथा खुरों में फिनायल व तेल लगाना चाहिए।रोग के नियन्त्रण के लिए स्वस्थ बच्चों को बीमार पशुओं से दूर रखना चाहिए तथा बीमार पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को स्वस्थ पशुओं के पास नहीं आना चाहिए बच्चों को सही समय पर रोग निरोधक टीके लगवाने चाहिए|बच्चों में इस बीमारी की रोकथाम के लिए पहला टिका एक माह,दूसरा तीन माह तथा तीसरा छ: माह की उम्र में लगाने चाहिए। इसके पश्चात हर छ:-छ: महीने बाद नियमित रूप में यह टिका लगवाना चाहिए।
मादा दुधारू पशुपन के जननांगों की रचना तथा कार्य:
पशु पालन में दुधारू पशुओं के उत्पादन कार्य का सीधा सम्बन्ध उनके प्रजनन से हैं। उचित प्रजनन के बिना उनसे समुचित उत्पादन लेना संभव नहीं हैं।प्रजनन सम्बन्धीसमस्याओं के समाधान तथा उचित प्रबन्धन के लिए पशुओं के प्रजनन अंगों की रचना तथा उनके कार्यों का ग्यान्होना अत्यन्त आवश्यक है।मादा दुधारू पशुओं (गाय/भैंसों) के जननांगों में निम्नलिखित भाग सम्मिलित होते हैं।
(1)अंडाशय (2)डिम्बवाहनियाँ (3)गर्भाशय (4)योनी तथा (5)भग (योनि द्वार)
अंडाशय:
मादा पशुओं में अंडाशय संख्या में दो होते हैं तथा ये उदर गुहा के पिछले हिस्से में स्थित होते हैं।अंडाशय का मुख्य कार्य परिपक अंडे तैयार करना है।इसके अतिरिक्त ये अत:स्रावी ग्रंथि का कार्य भी करते हैं जिसमें ये कुछ विशेष प्रकार के रस जिन्हें हार्मोन्स कहते हैं, भी बनाते हैं।ये हार्मोन्स पशुओं को मद चक्र में लाने तथा गर्भ धारण के बाद उनकी गर्भवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण न्हुमिका निभाता है।
डिम्बवाहनियाँ:
ये पतली व टेढ़ी-मेढ़ी दो नलिकायें प्रत्येक अंडाशय में समीप से प्रारम्भ होकर गर्भाशय के अगले भाग में जाकर खुलती हैं।अंडाशय के ऊपर ये वहनियाँ एक कीप की शक्ल में सटी रहती हैं ताकि अंडाशय से निकले अंड को ये ठीक प्रकार से ग्रहण कर सकें।अंडे का निषेचनअर्थात शुक्राणु से मिलकर भ्रूण का निर्माण इन्हीं नलिकाओं में होता है।
गर्भाशय:
गाय व भेंसों में गर्भाशय द्विसिंगा होता है अर्थात यह दो भागों में बंटा होता है।ये दोनों भाग आगे डिम्बवाहनियों से जुड़े होते हैं।पीछे जिस स्थल पर ये दोनों भाग मिलते हैं उसे गर्भाशय कई बाडी कहते हैं|भ्रूण का पूर्ण विकास गर्भाशय के अन्दर ही होता है तथा जन्म होने तक गर्भाशय के माध्यम से ही इसका पोषण होता है।गर्भाशय के पिछले हिस्से को गर्भाशय ग्रीवा कहते हैं।पशु के गर्भवस्था में होने पर गर्भाशय ग्रीवा बंद हो जाती है तथा मदकाल एवं प्रसव की अवस्था में यह खुल जाती है।
योनि:
गर्भाशय ग्रीवा से आरंभ होकर मूत्र-प्रजनन साइनस तक फैला यह एक लम्बा, लचीला तथा नलिकाकार अंग मादा पशुओं में मैथुन कार्य में प्रयोग होता है।गर्भवस्था पूर्ण होने पर प्रसव के समय बच्चे का जन्म भी अंग के इसी माध्यम से होता है।
भग (योनि द्वार):
यह प्रजनन नली का बाहरी निकास है जोकी मल द्वार के ठीक नीचे स्थित होता है।यह लम्बवत रूप में स्थित दो माँसल भागों,जोकिप्रजनन नली को बाहर से बंद रखने के लिए कपाट की तरह कार्य करते हैं,से मिलकर बनता है।
गाय व भेंसों में मद चक्र, मद काल, व मद के लक्षण:
दुग्ध पशुओं में प्रजनन कार्यक्रम की सफलता के लिए पशु पालक को मादा पशु में पाए जाने वाले मद चक्र का जानना बहुत आवश्यक है।गाय या भेंस सामान्य तौर पर हर 18 से 21 दिन के बाद गर्मी में आती है जब तक शरीर का वज़न लगभग 250 किलो होने पर शुरू होता है।गाय व भेंसों में ब्याने के लगभग डेढ़ माह के बाद यह चक्र शुरू हो जाता है।मद चक्र शरीर में कुछ खास न्यासर्गों (हार्मोन्स) के स्राव में संचालित होता है।
गाय व भेंसों में मदकल (गर्मी की अवधि) लगभग 20 से 36 घटे का होता है जिसे हम 3 भागों में बांट सकते हैं:- (1)मद की प्रारम्भिक अवस्था (2)मद की मध्यव्स्था (3)मद की अन्तिम अवस्था।मद की विभिन्न अवस्थाओं का हम पशुओं में बाहर से कुछ विशेष लक्षणों को देख कर पता लगा सकते हैं।
पशुओं में मद की प्रारम्भिक अवस्था:
(1)पशु की भूख में कमी आना।
(2)दूध उत्पादन में कमी।
(3)पशु का रम्भावना (बोलना)व बेचैन रहना।
(4)योनि से पतले श्लैष्मिक पदार्थ का निकलना।
(5)दूसरे पशुओं से अलग रहना।
(6)पशु का पूंछ उठाना।
(7)योनि द्वार (भग) का सूजना तथा बार-बार पेशाब करना।
(8)शरीर के तापमान में मामूली सी वृद्धि।
पशुओं में मद की मध्यव्स्था:
गर्मीं की यह अवस्था बहुत महवपूर्ण होती है क्योंकि कृत्रिम ग्रंह धान के लिए यही अवस्था सबसे उपयुक्त मानी जाती है।इसकी अवधि लगभग 10 घटे तक रहती है। इस अवस्था में पशु काफी उत्तेजित दीखता है तथा वह अन्य पशुओं में रूचि दिखता है।
यह अवस्था निम्नलिखित लक्षणों से पहचानी जा सकती है।
(1)योनि द्वार (भग) से निकलने वाले श्लैष्मिक पदार्थ का गढा होना जिससे वह बिना टूटे नीचे तक लटकता हुआ दिखाई देता है।
(2)पशु ज़ोर-ज़ोर से रम्भावना (बोलने) लगता हैं।
(3)भग (योनि द्वार)की सूजन तथा श्लैष्मिक झिल्ली की लाली में वृद्धि हो जाती है।
(4)शरीर का तापमान बढ़ जाता हैं।
(5)दूध में कमी तथा पीठ पर टेढ़ापन दिखाई देता है।
(6)पशु अपने ऊपर दूसरे पशु को चढने देता हैं अथवा वह खुद दूसरे पशुओं पे चढने लगता।
पशुओं में मद की अन्तिम अवस्था:
(1)पशु की भूख लगभग सामान्य हो जाती है।
(2)दूध में कमी भी समाप्त हो जाती है।
(3)पशु का रम्भाना कम हो जाता हैं।
(4)भग की सूजन व श्लैष्मिक झिल्ली की लाली में कमी आ जाती है।
(5)श्लेष्मा का निकलना या तो बन्द या फिर बहुत कम हो जाता है तथा यह बहुत गाढ़ा व कुछ अपारदर्शी होने लगता है।
पशुओं में गर्भधान करने का सही समय:
पशु में मदकल प्रारम्भ होने के 12 से 18 घटे बाद अर्थात मदकल के द्वितीय अर्ध भाग में उसमें गर्भधान करना सबसे अच्छा रहता है।मोटे तौर पर जो पशु सुबह गर्मीं में दिखाई डे उसमें दोपहर के बाद तथा जो शाम को मद में गिकाही से उसमें अगले दिन सुबह गर्भधान करना चाहिए।टीका लगाने का उपयुक्त समय वह है जब पशु दूसरे पशु के अपने ऊपर चढने पर चुपचाप खड़ा रहे।इसे स्टेंडिंग हित कहते हैं।बहुत से पशु मद काल में रम्भाते नहीं हैं लेकिन गर्मीं के अन्य लक्षणों के आधार पर उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता हैं।
गाय व भैंस में मदकाल, गर्भकाल एवं गर्भवती एवं गर्भित करने की समय सूचक सरणी-1
पशु | संभोग काल | वर्ष में ऋतुमती होना |
ऋतुकाल की अवधि |
वीर्य डालने का समय |
गर्भ काल | |
गर्भ न ठहरने पर |
ब्यांत के बाद |
|||||
गाय भैंस |
वर्ष भर तथा गर्मियों में अधिक |
हर 18-21 दिन बाद |
30-60 दिन में |
20-36 घण्टे |
मदकल आरम्भ होने के 12-18 घण्टे बाद 1 |
गाय-280 दिन भैंस-308 दिन |
पशुओं के मद चक्र पर ऋतुओं का प्रभाव:
वैसे तो साल भर पशु गर्मी में आटे रहते हैं लेकिन पशुओं के मद चक्र पर ऋतुओं का प्रभाव भी देखने में आता हैं।हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में वर्ष 1990 से 2000 तक किये गये कृत्रिम गर्भधान कार्य के एक विश्लेषण के अनुसार माह जून में सबसे अधिक (11.1%) गये गर्मीं में देखी गयीं जबकि सबसे कम(6.71%) गयें माह अक्टूबर में मद में पाई गयीं।प्रजनन के दृष्टिकोण से गायों में सबसे अच्छा त्रैमास सितम्बर-अक्टूबर -नवम्बर में सबसे कम (21.9%)गयें गर्मीं प्राप्त हुई।भैंसों में ऋतुओं का प्रभाव बहुत अधक पाया जाता है। उपरोक्त वर्षों में माह मार्च से अगस्त तक छ: माह की अवधि में जिसमें दिन की लम्बाई अधिक होती है वर्ष की 26.17% भैंसें मद में रिकाड की गयीं जबकि शेष छ: माह सितम्बर से फरवरी की अवधि में जिसमें दिन छोटे होते हैं, वर्ष की बाकी 73.83% भैंसें गर्मीं में पायी गयीं।गायों के विरुद्ध भैंसों में त्रैमास मई-जून-जुलाई प्रजनन के हिसाब से सबसे खराब रहा जिसमें केवल 11.11% भैंसें गर्मीं में देखी गयी जनकी त्रैमास अक्टूबर -नवम्बर-दिसम्बर सर्वोतम पाया गया जिसमें 44.13% भैंसों को मद में रिकाड किया गया।पशु प्रबन्धन में सुधर करके तथा पशुपालन में आधुनिक वैज्ञानिक त्रिकोण को अपना कर पशुओं के प्रजनन पर ऋतुओं के कुप्रभाव को जिससे पशु पालकों को बहुत हानि होती है, काफी हद तक कम किया जा सकता हैं।
पशु प्रजनन की क्रिया तथा इसमें न्यासर्गों (हार्मोन्स) की भूमिका:
मादा पशुओं में मद चक्र एक अत्यन्त जटिल क्रिया है जिसमें अनेक हार्मोन्स कार्य करते हैं।मस्तिष्क के निचले हिस्से से जुडी एक अंत: स्रावी ग्रन्थि जिसे पीउष अथवा पिट्यूटरी ग्रंथि कहते हैं, पशु प्रजनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।प्रत्येक अंडाशय में जन्म से ही हजारों की संख्या में अपरिपक्क अवस्था में अंडाणु होते हैं।पशु के युवावस्था में आने के बाद पिट्यूटरी ग्रन्थि के अगले भाग से गोनेडोट्रोफिन्स (एफ.एस.एच.एवं.एल.एच.)हार्मोन्स का स्राव होता है जिनके प्रभाव से अंडाशय में अनेक अंडाणुओं की वृद्धि व उनके परपक्कीकरण का कार्य शुरू हो जाता है। इनमें से केवल एक अंडाणु सामान्य रूप से हर 20-21 दिन के बाद ग्रफियन फोलिकल के अन्दर परिपक्क होकर मदकल की समाप्ति के लगभग 10 घण्टे के बाद अंडाशय से बाहर निकल कर डिम्बवाहनियों में प्रवेश करता हैं। यदि इसका इस स्थान पर निषेचन (शुक्राणु से मिलकर भ्रूण में परिवर्तन) नहीं होता, तो ये अंडाणुयहीं नष्ट हो जाता हैं तथा अंडाशय में दूसरा अंडाणु परिपक्क/विकसित होने लगता हैं।यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक की पशु गर्भधारण नहीं कर लेता। इस चक्र को ही मद चक्र कहते हैं।
मद काल में अंडाशय में ग्रफियन फोलिकल जिसमें कि अंडाणु का परीपक्कीकरण होता है, एक हारमोन जिसे ईस्ट्रोजन कहते हैं, निकलता है तथा यही नहीं हार्मोन्स पशु में गर्मी के लक्षण उत्पन्न करता है।ग्रफियन फोलिकल पशु के मदकल की समाप्ति के कुछ समय बाद फट जाता हैं तथा इस स्थान पर एक अन्य रचना जिसे कोरंपस ल्युटियम (सी.एल) कहते हैं, विकसित होने लगती है।कोरंपस ल्युटियम से एक अन्य हारमोन जिसे प्रोजेस्टरोन कहते हैं जोकि गर्भाशय को भ्रूण के विकास के लिये तैयार करता हैं तथा ये पशु को गर्मीं में आने से भी रिक्त हैं। अत: कोरपस ल्युटियम की गर्भ धारण के पश्चात सफल गर्भवस्था के लिए नितान्त आवश्यकता है।
यदि पशु का गर्भकाल में गर्भधान नहीं कराया गया हैं अथवा गर्भधान करने के बाद किसी कारण वश अंडाणु का निषेचन नहीं हो पाया तो मदकाल के लगभग 16वें दिन गर्भाशय से एक विशेष हारमोन जिसे पी.जी.एफ2 अल्फ़ा कहते हैं निकलता है जो अंडाशय में विकसित हुई कोर्पस ल्युटियम को घोल देता हैं। फलस्वरूप प्रोजेस्ट्रोन हारमोन का बनाना बन्द हो जाता हैं तथा अन्य अंडाणु का परीपक्कीकरण शुरू हो जाता हैं और कुछ समय बाद पशु पुन: गर्मी में आ जाता हैं।
यदि मदकाल में पशु का गर्भधान कराया गया है तथा अंडाणु का सफलता पूर्वक निषेचन हो गया है तो 5वें दिन निषेचित हो रहे भ्रूण से एक विशेष प्रकार का पदार्थ उत्पन्न होता है जिसके प्रभाव से गर्भाशय में आ जाता है। विकसित हो रहे भ्रूण से एक विशेष प्रकार का पदार्थ उत्पन्न होता हैं जिसके प्रभाव से गर्भाशय में पी.जी.एफ-2 अल्फ़ा नहीं बनाता और इस प्रकार पशु का मद चक्र टूट जाता हैं तथा वह गर्भवस्था में आजाता है| गर्भवस्था पूर्ण होने पर गर्भ के अन्दर पल रहे बच्चे के शरीर, माँ के शरीर तथा बच्चे से जुड़े प्लेसेंटा से कुछ हार्मोन्स निकलना आरंभ हो जाते हैं जिनके प्रभाव से सी.एल. समाप्त हो जाती है और पशु प्रसव की अवस्था में आकर बच्चे को जन्म डे देता हैं।गर्भाशय के सामान्य अवस्था में आने पर पशु में मद चक्र पुन: आरंभ हो जाता है।
मद के स्पष्ट लक्षणों के लिये ईस्ट्रोजन के साथ-साथ कम मात्रा में प्रोजेस्ट्रोन हारमोन जोकि पिछले मद चक्र के समाप्त हो रहे सी.एल. से उत्पन्न होता है, भी आश्यक है। इसी कारण प्रथम बार बछडियों के मद में आने पर तथा प्रसव के बाद पर उनमें स्पष्ट मद के लक्षण नहीं दिखते। कृप्या आप इस लेख को भी पढ़ें हिंदी में पशुपालन गाइड-भाग २
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