मुर्गी पालन कंपनी के मालिक बहादुर अली की कहानी.

मुर्गी पालन

मुर्गी पालन में कामयाबी की इस कहानी को पढ़िए और आप भी कुछ सीखिये इस कहानी से।

हालात से समझौता नहीं करने वाले बहादुर अली पिता की अचानक मृत्यु के बाद साइकिल की दुकान में पंचर बनाने के लिए मजबूर हुए लेकिन मन में था कामयाबी का सपना… फिरशुरू किया अपना स्वरोजगार- मुर्गी पालन । थोड़ी-सी कामयाबी मिली लेकिन वे चाहते थे बड़ी कामयाबी। नई जानकारी और नई तकनीक के साथ मुर्गी पालन के व्यवसाय को आगे बढ़ाया। आज बहादुर अली की कंपनी तीसरी सबसे बड़ी ब्रायलर कंपनी आइबी ग्रुप (इंडियन ब्रायलर ग्रुप कंपनी ) बन गई। कहते हैं कि जिंदगी हर-पल इम्तिहान लेती है और इस इम्तिहान में जो पास होता है, उसे जिंदगी सफलता देती है। चाहे जितनी मुश्किलें हो, बस हर-पल आगे बढ़ने की ललक होनी चाहिए, ऐसी ललक थी- बहादुर अली की।

मुर्गी पालन से पहले पंक्चर बनाने का किया काम

बचपन में अपने पिता और फिर भाई के साथ साइकिल की दुकान पर पंक्चर बनाने का काम करते थे, लेकिन आज वह हिदुस्तान की तीसरी सबसे बड़ी ब्रायलर कंपनी के ऑनर हैं।बहादुर अली बताते हैं कि अगर आप यह सोचकर पैसा कमाते हैं कि आपको आराम की जिदगी चाहिए, तो यह आपकी सोच हो सकती है, लेकिन मैं आराम की जिदगी उसको समझता हूं, जो आपको काम करने से मिलती है। जिंदगी में ऐसी सोच रखने वाले, इस शख्सियत ने जिंदगी से ही सीखा है, मेहनत करना और आगे बढ़ना।

चुनौती के पार मिली सफलता

1978 में पिता के निधन के बाद परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गई। उनके बड़े भाई सुल्तान अली ने विरासत में मिली साइकिल की दुकान संभाल ली। लेकिन उन्हें तलाशना था नया रास्ता जो बड़ी सफलता की ओर जाती हो। छत्तीसगढ़ के ‘राजनांदगांव’ जिले केनिवासी बहादुर अली बताते हैं, ‘अचानक एक डॉक्टर से मुलाकात हुई, जिसने हमें मुर्गी पालन व्यवसाय के बारे में समझाया और हमने सिर्फ 1०० मुर्गियों के साथ काम शुरू किया ,यह1984 का साल था। मुर्गी पालन में एंट्री करने के बाद, उनके पास समस्या थी, बेचने की वे बताते हैं, ‘उन सौ मुर्गियों को बेचने में जो कठिनाई महसूस हुई, उसे मैंने एक चुनौती के रूपमें स्वीकार किया और सोचा कि क्यों न खुद इसकी मार्केटिग करूं।’ बहादुर अली खुद की ब्रॉयलर चिकन की आउटलेट रिटेल खोलने की सोची लेकिन उन्होंने मार्केट में पकड़ बनाने के लिए अपने स्तर से एक छोटा सर्वे कराया कि लोग चिकन कहां से खरीदते हैं, इन दुकानों की क्या स्थिति है। उन्होंने यह बात भी पता लगाई की लोकल एरिया में लोग देसी मुर्गा खरीदना पसंद करते हैं जबकि विशिष्ट लोग ‘ब्रायलन चिकन’ खरीदते हैं। बहुत सोच-समझ कर बहादुर अली ने 1985 में नागपुर में एक छोटी-सी दुकान खोली। उनका लक्ष्य पहले से

निर्धारित था, एक महीने में 5०० चिकन बेचना। बहादुर अली ने अखबार में एक छोटा-सा विज्ञापन प्रकाशित कराया और विज्ञापन में चिकन का दाम भी लिखा। उन्होंने चिकन की कीमत कुल लागत के 2 गुना रखा, लेकिन वो डर रहे थे कि कहीं ज्यादा दाम तो नहीं रखा गया। उनका डर तब खत्म हुआ, जब पहले दिन 3०० चिकन का स्टॉक दोपहर होते-होते सारा बिक गया। अपनी पहली लेकिन छोटी-सी इस सफलता ने उन्हें आत्मविश्वास से भर दिया। बहादुर अली को एक बात समझ में आई कि यहां पर ब्रॉयलर चिकन की मांग उसकी सप्लाई से अधिक थी और इसका फायदा उठाने के लिए वे अब आगे की ओर बढ़ें, तभी उन्हें नागपुर के एक होटल से महीने में 2००० चिकन सप्लाई करने का ऑर्डर मिला लेकिन उनकी फर्म की झमता इतनी नहीं थी। अपने भाई सुल्तान अली से इस बाबत बात की और बताते हैं, ‘हमने निर्णय लिया कि हम अपने मुर्गी पालन फॉर्म का विस्तार करेंगे और पूरी तेजी से काम करेंगे’ फिलहाल उन्होंने हैदराबाद के एक ट्रेडर से चिकन लेकर होटल में सप्लाई करने का निर्णय लिया।

अपनी मार्केट को बनाए रखने के लिए उन्होंने होटल को ट्रेडर के द्बारा सप्लई जारी रखी लेकिन इसी के साथ उन्होंने खुद चिकन का उत्पाद बढ़ाना शुरू करने का निश्चय किया। लेकिन इसके लिए पैसों की जरूरत थी, बैंक ऑफ इंडिया से उन्होंने लोन लिया जो काफी कम था लेकिन बाद में अपने बिजनेस को नई गति दी। 1987 के साल में बहादुर अली ने फिर 1० लाख रुपये का लोन लिया और इसे अपने बिजनेस में लगा दिया।  199० में बैंक ने काम आगे बढ़ाने के लिए 4० लाख रुपये का लोन दिया। बहादुर अली ने समझदारी दिखाई और सारा पैसा बिजनेस में लगाया। बॉयलर फॉर्म खोलने के लिए तीन चीजों की जरूरत होती है- जमीन, मुर्गे और उन्हें खिलाने के लिए खाना। 8० के दशक के आखिरी में जमीन की कीमत कम थी, लेकिन निर्माण कार्य बहुत महंगा था। मुर्गी पालन फॉर्म के लिए चूजों की संख्या बढ़ाना शुरू किया लेकिन यातायात का साधन खरीदना महंगा था,इसलिए बहादुर अली ने मुर्गे भेजने के लिए रायपुर और नागपुर रूट पर रोज चलने वाले ट्रकों का इस्तेमाल किया। एक बात यह थी कि उन्होंने यातायात के लिए ट्रक में निवेश न करके, पैसों को बॉयलर उत्पादन में लगाया।

1996 साल आते-आते बहादुर अली का इंडियन ब्रायलर ग्रुप कंपनी 4०,००० चिकन प्रति महीने का उत्पादन करने लगा। सालाना आय करोड़ रुपए हो गई, बिजनेस कामयाब हो रहा था लेकिन बहादुर अली अभी भी अपने लिए एक और नया लक्ष्य तय कर लिया, वो और आगे जाना चाहते थे। उनकी जिदगी और व्यवसाय में बदलाव तब आया, जब 1996 में दिल्ली के प्रगति मैदान में ‘वर्ल्ड पोल्ट्री कांग्रेस’ का आयोजन किया गया। अंग्रेजी भाषा से अनजान अली की मदद उनके बेटों और बहनोई ने की और वे हर स्टॉल पर गए। अचानक उनकी मुलाकात एक अमेरिकन कंसल्टेंट से हुई और

उसने उन्हें मुर्गी पालन तकनीकों के बेहतर इस्तेमाल के साथ बिजनेस के गुर सिखाएं। उसके बाद उनकी उलझनें दूर हो गईं और फिर उसके बाद आगे-पीछे कुछ नहीं सोचा। उनकी समझ में आया कि नई आधुनिक तकनीक को अपनाया जाए, जिससे उत्पादन की लागत को कम कर अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है।

साकार हुआ सपना

आज बहादुर अली का  की मुर्गी पालन क्षमता 5० लाख से अधिक है। 1०० मुर्गी से शुरू मुर्गी पालन का उनका छोटा-सा व्यवसाय आज 3०० करोड़ रूपये का बड़ी कंपनी बन गई है। बहादुर अली की मेंहनत ने आइबी ग्रुप कंपनी को भारत की तीसरी सबसे बड़ी मुर्गी पालन करने वाली कंपनी बना दिया है। इसके साथ ही पैकेज्ड दूध, खाद्य तेल, मछली के फीड आदि का भी उत्पादन हो रहा है। उनका बिजनेस छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, विदर्भ और उड़ीसा में फैला हुआ है। लेकिन उनका काम ज्यादातर गांवों में है, इसलिए कर्मचारियों में भी 9० फीसदी ग्रामीण इलाका के हैं। बहादुर अली पहले बेचने की चिता करते हैं, फिर तकनीक के साथ उसका उत्पादन, ताकि सरप्लस न हो। काम के प्रति लगन और समर्पण के साथ एक बेहतर जिंदगी की उनकी तालाश ने आज उन्हें सफल व्यवसायी बना दिया। जिंदगी के बुरे दौर में भी उन्होंने हार नहीं मानी और सही दिशा के साथ बेहतर तकनीक के साथ वह बढ़ते गएं और अपने लिए एक नया लक्ष्य भी गढ़ते गएं, और इस तरह बहादुर अली ने अपनी तकदीर खुद लिखी।

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  • To improve growth and liveability in cattle and poultry.
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Cow, Buffalo & Horse : 30-50 ml each animal per day.
Calves : 20-30 ml each animal per day.
Sheep, Goat & Pig : 10-15 ml each animal per day.
Should be given daily for 7 to 10 days, every month or as recommended by veterinarian.

Packaging : 500 m.l., 1 ltr. & 5 ltr.

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